जहाँ दया तहँ धर्म है, जहाँ लोभ तहँ पाप। जहाँ क्रोध तहँ काल है, जहाँ क्षमा तहँ आप।। दया हृदय में राखिये, तू क्यों निरदय होय। साईं के सब जीव हैं, कीड़ी कुंजर सोय।। बड़े दीन के दुख सुने, लेत दया उर आनि। हरि हाथी सों कब हुती, कहु रहीम पहिचानि।। दया धरम हिरदै बसै, बोलै अमृत बैन। तेई ऊँचे जानिये, जिनके नीचे नैन।। रक्षा करी न जीव की, दियो न आदर दान। नारायन ता पुरुष सों, रूख भलौ फलवान।। निज-पर-अरि-हितु की न सुधि, द्रवै हृदय दुख देखि। लहै न सुख दुख हरे बिनु, दयावंत सो लेखि।। देखि दुखी जन मन बिकल, गने न निज-पर कोइ। निज सर्वस दै दुख हरै, दया कहावत सोइ।। दीनहि नहिं मानै कबहुँ, अपने तें कछु हीन। निज दुख सम लखि, दुख हरै सोइ दया-रस लीन।।
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