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Saturday, April 20, 2013

kabeer dohe

गुरु - महिमा
1.
गुरु सो ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजये दान | 
बहुतक भोंदू बहि गये, सखि जीव अभिमान ||
अपने सिर की भेंट देकर गुरु से ज्ञान प्राप्त करो | परन्तु यह सीख न मानकर और तन, धनादि का अभिमान धारण कर कितने ही मूर्ख संसार से बह गये, गुरुपद - पोत में न लगे |
2.
गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय |
कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नशाय ||
वैव्हार में भी साधु को गुरु की आज्ञानुसार ही आना - जाना चाहिए | 
सदगुरु  कहते हैं कि संत वही है जो जन्म - मरण से पार होने के लिए साधना करता है |
3.
    गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त |
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त ||
गुरु में और पारस - पत्थर में अन्तर है, यह सब सन्त जानते हैं | पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है, परन्तु गुरु शिष्य को अपने समान महान बना लेता है |
4.
कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय |
जन्म - जन्म  का मोरचा, पल में डारे धोया ||
कुबुद्धि रूपी कीचड़ से शिष्य भरा है, उसे धोने के लिए गुरु का ज्ञान जल है | जन्म - जन्मान्तरो की बुराई गुरुदेव क्षण ही में नष्ट कर देते हैं |
5.
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि - गढ़ि काढ़ै खोट |
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट ||
गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़ा है, भीतर से हाथ का सहार देकर, बाहर से चोट मार - मारकर और गढ़ - गढ़ कर शिष्य की बुराई को निकलते हैं | 
6.
गुरु समान दाता नहीं, याचक शीष समान |
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान ||
गुरु के समान कोई दाता नहीं, और शिष्य के सदृश याचक नहीं | त्रिलोक की सम्पत्ति से भी बढकर ज्ञान - दान गुरु ने दे दिया |
7.
जो गुरु बसै बनारसी, शीष समुन्दर तीर |
एक पलक बिखरे नहीं, जो गुण होय शारीर ||
यदि गुरु वाराणसी में निवास करे और शिष्य समुद्र के निकट हो, परन्तु शिष्य के शरीर में गुरु का गुण होगा, जो गुरु को एक क्षण भी नहीं भूलेगा |
8.
गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं |
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहिं ||
गुरु को अपना सिर मुकुट मानकर, उसकी आज्ञा में चलो | कबीर साहिब कहते हैं, ऐसे शिष्य - सेवक को तीनो  लोकों से भय नहीं है |
9.
गुरु सो प्रीतिनिवाहिये, जेहि तत निबहै संत |
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कंत ||
जैसे बने वैसे गुरु - सन्तो को प्रेम का निर्वाह करो | निकट होते हूए  भी प्रेम बिना वो दूर हैं, और यदि प्रेम है, तो गुरु - स्वामी पास ही हैं |
10.
गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर |
आठ पहर निरखत रहे, गुरु मूरति की ओर ||
गुरु की मूर्ति चन्द्रमा के समान है और सेवक के नेत्र चकोर के तुल्य हैं | अतः आठो पहर गुरु - मूर्ति  की ओर ही देखते रहो |
11.
गुरु मूरति आगे खड़ी, दुतिया भेद कुछ नाहिं|
उन्हीं कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं ||
गुरु की मूर्ति आगे खड़ी है, उसमें दूसरा भेद कुछ मत मानो | उन्हीं की सेवा बंदगी करो, फिर सब अंधकार मिट जायेगा|
12.
ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास |
गुरु सेवा ते पाइए, सद् गुरु चरण निवास ||
ज्ञान, सन्त - समागम, सबके प्रति प्रेम, निर्वासनिक सुख, दया, भक्ति सत्य - स्वरुप और सद् गुरु की शरण में निवास - ये सब गुरु की सेवा से ही मिलते  हैं |
13.
सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय |
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय ||
सब पृथ्वी को कागज, सब जंगल को कलम, सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते |
14.
पंडित यदि पढि गुनि मुये, गुरु बिना मिलै न ज्ञान |
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परमान ||
‍बड़े - बड़े विद्वान शास्त्रों को पढ - सुनकर ज्ञानी होने का दम भरते हैं, परन्तु गुरु के बिना उन्हें ज्ञान नही मिलता | ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती |
15.
कहै कबीर तजि भरत को, नन्हा है कर पीव|
तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव ||
कबीर कहते हैं कि भ्रम को छोडो, छोटा बच्चा बनकर गुरु - वचनरूपी दूध को पियो | इस प्रकार अहंकार को त्याग कर गुरु के चरणों की शरण ग्रहण करो, तभी जीव यम से बचेगा |
16.
सोई सोई नाच नचाइये, जेहि निबहे गुरु प्रेम |
कहै कबीर गुरु प्रेम बिन, कितहुं कुशल नहिं क्षेम ||
अपने मन - इन्द्रियों को उसी चाल में चलाओ, जिससे गुरु के प्रति प्रेम बढता जाये | कबीर साहिब कहते हैं कि गुरु के प्रेम बिन, कहीं कुशल क्षेम नहीं है |
17.
तबही गुरु प्रिय बैन कहि, शीष बढ़ी चित प्रीत |
ते कहिये गुरु सनमुखां, कबहूँ न दीजै पीठ ||
शिष्य के मन में बढ़ी हुई प्रीति देखकर ही गुरु मोक्षोपदेश करते हैं | अतः गुरु के समुख रहो, कभी विमुख मत बनो |
18.
अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहिं करै प्रतिपाल |
अपनी ओर निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल ||
मात - पिता निर्बुधि - बुद्धिमान सभी पुत्रों का प्रतिपाल करते हैं | पुत्र की भांति ही शिष्य को गुरुदेव अपनी मर्यादा की चाल से मिभाते हैं |
19.
करै दूरी अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदये |
बलिहारी वे गुरु की हँस उबारि जु लेय ||
ज्ञान का अंजन लगाकर शिष्य के अज्ञान दोष को दूर कर देते हैं | उन गुरुजनों की प्रशंसा है, जो जीवो को भव से बचा लेते हैं |
20.
साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे वाखे मोय |
जल सो अरक्षा परस नहिं, क्यों कर ऊजल होय ||
साबुन बेचारा क्या करे,जब उसे गांठ में बांध रखा है |जल से स्पर्श करता ही नहीं फिर कपडा कैसे उज्वल हो | भाव - ज्ञान की वाणी तो कंठ कर ली, परन्तु विचार नहीं करता, तो मन कैसे शुद्ध हो |
21.
राजा की चोरी करे, रहै रंक की ओट |
कहै कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट ||
कोई राजा के घर से चोरी करके दरिद्र की शरण लेकर बचना चाहे तो कैसे बचेगा | इसी प्रकार सद् गुरु से मुख छिपाकर, और कल्पित देवी - देवताओं  की शरण लेकर कल्पना की कठिन चोट से जीव कैसे बचेगा |
22.
सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड |
तीन लोक न पाइये, अरु इकइस ब्रह्मणड ||
सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रह्मणडो में सद् गुरु के समान हितकारी आप किसी को नहीं पायेंगे |
23.
सतगुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय |
धन्य शिष धन भाग तिहि, जो ऐसी सुधि पाय ||
सद् गुरु सत्ये - भाव का भेद बताने वाला है | वह शिष्य धन्य है तथा उसका भाग्य भी धन्य है जो गुरु के द्वारा अपने स्वरुप की सुधि पा गया है |
24.
सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय |
भ्रम का भाँडा तोड़ी करि, रहै निराला होय ||
सद् गुरु मिल गये - यह बात तब जाने जानो, जब तुम्हारे हिर्दे में ज्ञान का प्रकाश हो जाये, भ्रम का भंडा फोडकर निराले स्वरूपज्ञान को प्राप्त हो जाये |
25.
मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर |
अब देवे को क्या रहा, यो कथि कहहिं कबीर ||
यदि अपना मन तूने गुरु को दे दिया तो जानो सब दे दिया, क्योंकि मन के साथ ही शरीर है, वह अपने आप समर्पित हो गया | अब देने को रहा ही क्या है |
26.
जेही खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव |
कहैं कबीर सुन साधवा, करू सतगुरु की सेवा ||
जिस मुक्ति को खोजते ब्रह्मा, सुर - नर मुनि और देवता सब थक गये | ऐ सन्तो, उसकी प्राप्ति के लिए सद् गुरु की सेवा करो |
27.
जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान |
तामें निपट अनूप है, सतगुरु लगा कान ||
दुखों से छूटने के लिए संसार में उपमारहित युक्ति संतों की संगत और गुरु का ज्ञान है | उसमे अत्यंत उत्तम बात यह है कि सतगुरु के वचनों पार कान दो |
28.
डूबा औधर न तरै, मोहिं अंदेशा होय |
लोभ नदी की धार में, कहा पड़ा नर सोय ||
कुधर में डूबा हुआ मनुष्य बचता नहीं | मुझे तो यह अंदेशा है कि लोभ की नदी - धारा में ऐ मनुष्यों - तुम कहां पड़े सोते हो |
29.
केते पढी गुनि पचि मुए, योग यज्ञ तप लाय |
बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपाय ||
कितने लोग शास्त्रों को पढ - गुन और योग व्रत करके ज्ञानी बनने का ढोंग करते हैं, परन्तु बिना सतगुरु के ज्ञान एवं शांति नहीं मिलती, चाहे कोई करोडों उपाय करे |
30.
सतगुरु खोजे संत, जीव काज को चाहहु |
मेटो भव के अंक, आवा गवन निवारहु ||
ऐ संतों - यदि अपने जीवन का कल्याण चाहो, तो सतगुरु की खोज करो और भव के अंक अर्थात छाप, दाग या पाप मिटाकर, जन्म - मरण से रहित हो जाओ |
31.
यह सतगुरु उपदेश है, जो माने परतीत |
करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भव जलजीत ||
यही सतगुरु का यथार्थ उपदेश है, यदि मन विश्वास करे, सतगुरु उपदेशानुसार चलने वाला करम भ्रम त्याग कर, संसार सागर से तर जाता है |
32.
जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरंध |
अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द ||
जिसका गुरु ही अविवेकी है उसका शिष्य स्वय महा अविवेकी होगा | अविवेकी शिष्य को अविवेकी गुरु मिल गया, फलतः दोनों कल्पना के हाथ में पड़ गये |
33.
जनीता बुझा नहीं बुझि, लिया नहीं गौन |
अंधे को अंधा मिला, राह बतावे कौन ||
विवेकी गुरु से जान - बुझ - समझकर परमार्थ - पथ पर नहीं चला | अंधे को अंधा मिल गया तो मार्ग बताये कौन |

साधु - महिमा

34.
कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय |
अंक भरे भरि भेरिये, पाप शरीर जाय ||
वो दिन बहुत अच्छा है जिस दिन सन्त मिले | सन्तो से दिल खोलकर मिलो , मन के दोष दूर होंगे |
35. 
दरशन कीजै साधु का, दिन में कइ कइ बार |
आसोजा का भेह ज्यों, बहुत करे उपकार ||
सन्तो के दर्शन दिन में बार - बार करो | यहे आश्विन महीने की वृष्टि के समान बहुत उपकारी है |
36.
दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करू इकबार |
कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार ||
सन्तो के  दर्शन दिन में दो बार ना कर सके तो एक बार ही कर ले | सन्तो के  दर्शन  से जीव संसार - सागर से पार उतर जाता है |
37.
दूजे दिन नहीं करि सके, तीजे दिन करू जाय |
कबीर साधु दरश ते, मोक्ष मुक्ति फन पाय ||
सन्त दर्शन दूसरे दिन ना कर सके तो तीसरे दिन करे | सन्तो के दर्शन से जीव मोक्ष व मुक्तिरुपी महान फल पता है |
38.
बार - बार नहिं करि सकै, पाख - पाख करि लेय |
कहैं कबीर सों भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय ||
यदि सन्तो के दर्शन साप्ताहिक न कर सके, तो पन्द्रह दिन में कर लिया करे | कबीर जी कहते है ऐसे भक्त भी अपना जन्म सफल बना सकते हैं |
39.
मास - मास नहिं करि सकै, छठे मास अलबत |
थामें ढ़ील न कीजिये, कहैं कबीर अविगत ||
यदि सन्तो के दर्शन महीने - महीने न कर सके, तो छठे महीने में अवश्य करे | अविनाशी वोधदाता गुरु कबीर कहते हैं कि इसमें शिथिलता मत करो |
40.
बरस - बरस नहिं करि सकैं, ताको लगे दोष |
कहैं कबीर वा जीव सों, कबहु न पावै मोष ||
यदि सन्तो के दर्शन बरस - बरस में भी न कर सके, तो उस भक्त को दोष लगता है | सन्त कबीर जी कहते हैं, ऐसा जीव इस तरह के आचरण से कभी मोक्ष नहीं पा सकता |
41.
इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय |
कहैं कबीर सोई संतजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय ||
किसी के रोड़े डालने से न रुक कर, सन्त - दर्शन के लिए अवश्य जाना चहिये | सन्त कबीर जी कहते हैं, ऐसे ही सन्त भक्तजन मोक्ष फल को पा सकते हैं |
42.
खाली साधु न बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय |
कहैं कबीर कछु भेंट धरूँ, जो तेरे घर होय ||
सब कोई कान लगाकर सुन लो | सन्तों लो खाली हाथ मत विदा करो | कबीर जी कहते हैं, तम्हारे घर में जो देने योग्य हो, जरूर भेट करो |
43.
सुनिये पार जो पाइया, छाजिन भोजन आनि |
कहैं कबीर संतन को, देत न कीजै कानि ||
सुनिये ! यदि संसार - सागर से पार पाना चाहते हैं, भोजन - वस्त्र लाकर संतों को समर्पित करने में आगा - पीछा या अहंकार न करिये |

आचरण की महिमा

44.
चाल बकुल की चलत है, बहुरि कहावै हंस |
ते मुक्ता कैसे चुगे, पड़े काल के फंस ||
जो बगुले के आचरण में चलकर, पुनः हंस कहलाते हैं वे ज्ञान - मोती कैसे चुगेगे ? वे तो कल्पना काल में पड़े हैं |
45.
बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल |
बोली बोले सियार की, कुत्ता खावै फाल ||
सिंह का वेष पहनकर, जो भेड़ की चाल चलता तथा सियार की बोली बोलता है, उसे कुत्ता जरूर फाड़ खायेगा |
46.
जौ मानुष ग्रह धर्म युत, राखै शील विचार |
गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच सेवा सार ||
जो ग्रहस्थ - मनुष्य गृहस्थी धर्म - युक्त रहता, शील विचार रखता, गुरुमुख वाणियों का विवेक करता, साधु का संग करता और मन, वचन, कर्म से सेवा करता है उसी को जीवन में लाभ मिलता है |
47.
शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव |
क्या रमता क्या बैठता, क्या ग्रह कांदला छाँव ||
निर्णय शब्द का विचार करे, ज्ञान मार्ग में पांव रखकर सत्पथ में चले, फिर चाहे रमता रहे, चाहे बैठा रहे, चाहे आश्रम में रहे, चाहे गिरि - कन्दरा में रहे और चाहे पेड की छाया में रहे - उसका कल्याण है |
48.
गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दूख |
कहैं कबीर ता दुःख पर वारों, कोटिक सूख ||
विवेक - वैराग्य - सम्पन्न सतगुरु के समुख रहकर जो उनकी कसौटी और सेवा करने तथा आज्ञा - पालन करने का कष्ट सहता है, उस कष्ट पर करोडों सुख न्योछावर हैं |
49.
कवि तो कोटि कोटि हैं, सिर के मूड़े कोट |
मन के मूड़े देखि करि, ता संग लिजै ओट ||
करोडों - करोडों हैं कविता करने वाले, और करोडों है सिर मुड़ाकर घूमने वाले वेषधारी, परन्तु ऐ जिज्ञासु! जिसने अपने मन को मूंड लिया हो, ऐसा विवेकी सतगुरु देखकर तू उसकी शरण ले |
50.
बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम |
मद माया और इस्तरी, नहि सन्त के काम ||
बोली - ठोली, मस्खरी, हँसी, खेल, मद, माया एवं स्त्री संगत - ये संतों को त्यागने योग्य हैं |
51.
भेष देख मत भूलये, बुझि लीजिये ज्ञान |
बिना कसौटी होत नहिं, कंचन की पहिचान ||
केवल उत्तम साधु वेष देखकर मत भूल जाओ, उनसे ज्ञान की बातें पूछो! बिना कसौटी के सोने की पहचान नहीं होती |
52.
बैरागी बिरकात भला, गिरही चित्त उदार |
दोऊ चूकि खाली पड़े, ताके वार न पार ||
साधु में विरक्तता और ग्रस्थ में उदार्तापूर्वक सेवा उत्तम है | यदि दोनों अपने - अपने गुणों से चूक गये, तो वे छुछे रह जाते हैं, फिर दोनों का उद्धार नहीं होता |
53.
घर में रहै तो भक्ति करू, नातरू करू बैराग |
बैरागी बन्धन करै, ताका बड़ा अभागा ||
साधु घर में रहे तो गुरु की भक्ति करनी चहिये, अन्येथा घर त्याग कर वेराग्ये करना चहिये | यदि विरक्त पुनः बंधनों का काम करे, तो उसका महान सुर्भाग्य है |
54.
धारा तो दोनों भली, विरही के बैराग |
गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ||
धारा तो दोनों अच्छी हैं, क्या ग्रास्थी क्या वैराग्याश्रम! ग्रस्थ सन्त को गुरु की सेवकाई करनी चहिये और विरक्त को वैराग्यनिष्ट होना चहिये |

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