| यो सौदा फिर नाहीं संतों, यो सौदा फिर नाहीं ||टेक|| लोहे के सा ताव जात है, काया देह सिराहीं | यो दम टूटै पिण्डा फूटै, हो लेखा दरगह माहीं | तीन लोक और भवन चतुर्दश, यो जग सौदे आई | दूने तीने किये चौगने, किनहूं मूल गंवाई | उस दरगह में मार पड़ेगी, जम पकरैंगें बाहीं | वा दिन की मोहि डरनी लागै, लज्या रहै के नाहीं | नर नारायण देह पाय कर, फिर चौरासी जाहीं | जा सतगुरु की मैं बलिहारी, जामन मरण मिटाहीं | कुल परिवार सकल कबीला, मसलति एक ठहराई | बांधि पिंजरी आगै धरिया, मडहट में ले जाहीं | अग्नि लगा दिया जदि लंबा, फूकि दिया उस ठाहीं | वेद बांधि कर पंडित आये, पीछै गरुड़ पढ़ाहीं | नर सेती फिर पशुवा कीजै, गधा बैल बनाई | छप्पन भोग कहाँ मन बौरे, कुरडी चरने जाई | प्रेतशिला पर जाय बिराजे, पितरों पिंड भराहीं | बहुरि शराध खान कूं आये, काग भये कलि माहीं | जो सतगुरु की संगत करते, सकल कर्म कट जाहीं | अमरपुरी में आसन होते, ना जहाँ धूप न छाहीं | सुरति निरति मन् पवन पियाना, शब्दें शब्द समाई | गरीबदास गलतान महल में, मिले कबीर गोसांई |