मकान चाहे कच्चे थे
  लेकिन रिश्ते सारे सच्चे थे...
चारपाई पर बैठते थे
  पास पास रहते थे...
सोफे और डबल बेड आ गए
  दूरियां हमारी बढा गए....
छतों पर अब न सोते हैं
  बात बतंगड अब न होते हैं..
आंगन में वृक्ष थे
  सांझे सुख दुख थे...
दरवाजा खुला रहता था
  राही भी आ बैठता था...
कौवे भी कांवते थे
  मेहमान आते जाते थे...
इक साइकिल ही पास था
  फिर भी मेल जोल था...
रिश्ते निभाते थे
  रूठते मनाते थे...
पैसा चाहे कम था
  माथे पे ना गम था...
मकान चाहे कच्चे थे
  रिश्ते सारे सच्चे थे...
अब शायद कुछ पा लिया है
  पर लगता है कि बहुत कुछ गंवा दिया
जीवन की भाग-दौड़ में -
  क्यूँ वक़्त के साथ रंगत खो जाती है?
  हँसती-खेलती ज़िन्दगी भी आम हो जाती है।
एक सवेरा था जब हँस कर उठते थे हम
  और
  आज कई बार
  बिना मुस्कुराये ही शाम हो जाती है!!
कितने दूर निकल गए,
  रिश्तो को निभाते निभाते
खुद को खो दिया हमने,
  अपनों को पाते पाते
Beautiful poem by
  --हरिवंशराय बच्च,
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